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मुज़्तर हैदरी शायरी | शाही शायरी

मुज़्तर हैदरी शेर

9 शेर

बहुत क़रीब है 'मुज़्तर' वो ज़िंदगी का निज़ाम
नज़र न आएगा जब कोई बिस्मिल ओ क़ातिल

मुज़्तर हैदरी




हाए बे-चेहरगी ये इंसाँ की
हाए ये आदमी-नुमा क्या है

मुज़्तर हैदरी




इक ठेस भी हल्की सी पत्थर से गिराँ-तर है
नाज़ुक है ये दिल इतना शीशे का हो घर जैसे

मुज़्तर हैदरी




झुकी झुकी जो है कड़वी-कसीली नीम की शाख़
उसी पे शहद का छत्ता दिखाई देता है

मुज़्तर हैदरी




कल रात मिरे दिल ने फिर चुपके से पूछा है
'मुज़्तर' तिरी आहों में आएगा असर कब तक

मुज़्तर हैदरी




ख़ुलूस हो तो कहीं बंदगी की क़ैद नहीं
सनम-कदे में तवाफ़-ए-हरम भी मुमकिन है

मुज़्तर हैदरी




कोई भी शक्ल मुकम्मल किताब बन न सकी
हर एक चेहरा यहाँ इक़्तिबास जैसा है

मुज़्तर हैदरी




महफ़िल में उन की खुल गया दिल का मुआमला
पलकों पे अश्क रह गए पीने के ब'अद भी

मुज़्तर हैदरी




संग-रेज़ो को हक़ारत से न ठुकराइए आप
ख़ाक के ज़र्रे भी सीने में शरर रखते हैं

मुज़्तर हैदरी