चश्म-ए-बातिन में से जब ज़ाहिर का पर्दा उठ गया
जो मुसलमाँ था वही हिन्दू नज़र आया मुझे
मीर कल्लू अर्श
गले में अपने पहना है जो तू ने ऐ बुत-ए-काफ़िर
मिरी तस्बीह को है रश्क ज़ुन्नार-ए-बरहमन पर
मीर कल्लू अर्श
काबा का और ख़ाना-ए-दिल का ये हाल है
जैसे कोई मकाँ हो मकाँ के जवाब में
मीर कल्लू अर्श
क्या दिया बोसा लब-ए-शीरीं का हो कर तुर्श-रू
मुँह हुआ मीठा तो क्या दिल अपना खट्टा हो गया
मीर कल्लू अर्श
क्या ग़ैर क्या अज़ीज़ कोई नौहागर न हो
ऐ जान यूँ निकल कि बदन तक ख़बर न हो
मीर कल्लू अर्श
मुझ को और यार को दोनों से सरोकार नहीं
कुफ़्र काफ़िर को मुसलमाँ को है इस्लाम पसंद
मीर कल्लू अर्श
सेह्हत है मरज़ क़ज़ा शिफ़ा है
अल्लाह हकीम है हमारा
मीर कल्लू अर्श
तोड़ कर काबे को मस्जिद न बनाओ ज़ाहिद
ख़ाना-बर्बाद किसी दिल ही में कर घर पैदा
मीर कल्लू अर्श