करम के बाब में अपनों से इब्तिदा किया कर
ज़रा सी बात पे दिल को न यूँ बुरा किया कर
मजीद अख़्तर
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रात भी चाँद भी समुंदर भी
मिल गए कितने ग़म-गुसार मुझे
मजीद अख़्तर
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सारा हिसाब-ए-जान-ओ-दिल रक्खा है तेरे सामने
चाहे तो दे अमाँ मुझे चाहे तो दरगुज़र न कर
मजीद अख़्तर
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ज़रा ठहरो कि पढ़ लूँ क्या लिखा मौसम की बारिश ने
मिरी दीवार पर लिखती रही है दास्ताँ वो भी
मजीद अख़्तर
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