प्रोफ़ेसर ही जब आते हों हफ़्ता-वार कॉलेज में
तो ऊँचा क्यूँ न हो तालीम का मेआर कॉलेज में
इनाम-उल-हक़ जावेद
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सुख़न के सारे सलीक़े ज़बाँ में रखता है
नहीं का अक्स निहाँ अपनी हाँ में रक्खा है
इनाम-उल-हक़ जावेद
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तमाम उम्र गँवा दी जिसे भुलाने में
वो निस्फ़ माज़ी का क़िस्सा था निस्फ़ हाल का था
इनाम-उल-हक़ जावेद
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वो डिग्री की बजाए मेम ले कर लौट आया है
मिला था दाख़िला जिस को समुंदर-पार कॉलेज में
इनाम-उल-हक़ जावेद
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