अर्श तक जाती थी अब लब तक भी आ सकती नहीं
रहम आ जाता है क्यूँ अब मुझ को अपनी आह पर
it cannot even reach my lips, it used to reach the highest skies
I feel compassion at the sorry condition of my sighs
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
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दिलबरों के शहर में बेगानगी अंधेर है
आश्नाई ढूँडता फिरता हूँ मैं ले कर दिया
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
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हम सरगुज़िश्त क्या कहें अपनी कि मिस्ल-ए-ख़ार
पामाल हो गए तिरे दामन से छूट कर
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
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लहू टपका किसी की आरज़ू से
हमारी आरज़ू टपकी लहू से
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
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सीरत के हम ग़ुलाम हैं सूरत हुई तो क्या
सुर्ख़ ओ सफ़ेद मिट्टी की मूरत हुई तो क्या
बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
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