आज निकले याद की ज़म्बील से
मोर के टूटे हुए दो चार पर
अज़हर अदीब
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
अब राह में कोई भी मदीना नहीं आता
अज़हर अदीब
बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
जागने वाली आँख में लाली रह जाती है
अज़हर अदीब
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
अपनी आँखें गईं या सितारे गए
अज़हर अदीब
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
और वो इतने में हमें भूल चुका होता है
अज़हर अदीब
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
आइने के वार से डरता हूँ मैं
अज़हर अदीब
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
आज का मौसम गुज़िश्ता रोज़ से अच्छा तो है
अज़हर अदीब
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
घने जंगल में किरनों के लिए रस्ता बनाते हैं
अज़हर अदीब
हम ने घर की सलामती के लिए
ख़ुद को घर से निकाल रक्खा है
अज़हर अदीब