आए हैं लोग रात की दहलीज़ फाँद कर
उन के लिए नवेद-ए-सहर होनी चाहिए
अताउल हक़ क़ासमी
दिलों से ख़ौफ़ निकलता नहीं अज़ाबों का
ज़मीं ने ओढ़ लिए सर पर आसमाँ फिर से
अताउल हक़ क़ासमी
गुम हुआ जाता है कोई मंज़िलों की गर्द में
ज़िंदगी भर की मसाफ़त राएगाँ होने को है
अताउल हक़ क़ासमी
जिस की ख़ातिर मैं भुला बैठा था अपने आप को
अब उसी के भूल जाने का हुनर भी देखना
अताउल हक़ क़ासमी
लगता नहीं कि उस से मरासिम बहाल हों
मैं क्या करूँ कि थोड़ा सा पागल तो मैं भी हूँ
अताउल हक़ क़ासमी
उसे अब भूल जाने का इरादा कर लिया है
भरोसा ग़ालिबन ख़ुद पर ज़ियादा कर लिया है
अताउल हक़ क़ासमी
वो एक शख़्स कि मंज़िल भी रास्ता भी है
वही दुआ भी वही हासिल-ए-दुआ भी है
अताउल हक़ क़ासमी
ये किस अज़ाब में उस ने फँसा दिया मुझ को
कि उस का ध्यान कोई काम करने देता नहीं
अताउल हक़ क़ासमी