ग़ुबार सा है सर-ए-शाख़-सार कहते हैं
चला है क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार कहते हैं
असग़र सलीम
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इस एक बात से गुलचीं का दिल धड़कता है
कि हम सबा से हदीस-ए-बहार कहते हैं
असग़र सलीम
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जिसे कभी सर-ए-मिंबर न कह सका वाइज़
वो बात अहल-ए-जुनूँ ज़ेर-ए-दार कहते हैं
असग़र सलीम
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