जो दिख रहा उसी के अंदर जो अन-दिखा है वो शायरी है 
जो कह सका था वो कह चुका हूँ जो रह गया है वो शायरी है
अहमद सलमान
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                कुचल कुचल के न फ़ुटपाथ को चलो इतना 
यहाँ पे रात को मज़दूर ख़्वाब देखते हैं
अहमद सलमान
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                मैं हूँ भी तो लगता है कि जैसे मैं नहीं हूँ 
तुम हो भी नहीं और ये लगता है कि तुम हो
अहमद सलमान
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                सब ने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था 
माँ ने फिर भी क़ब्र पे उस की राज-दुलारा लिक्खा था
अहमद सलमान
वो जिन दरख़्तों की छाँव में से मुसाफ़िरों को उठा दिया था 
उन्हीं दरख़्तों पे अगले मौसम जो फल न उतरे तो लोग समझे
अहमद सलमान
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