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ज़िंदगी | शाही शायरी
zindagi

नज़्म

ज़िंदगी

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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मलक-ए-शहर-ए-ज़िंदगी तेरा
शुक्र किस तौर से अदा कीजे

दौलत-ए-दिल का कुछ शुमार नहीं
तंग-दस्ती का क्या गिला कीजे

जो तिरे हुस्न के फ़क़ीर हुए
उन को तशवीश-ए-रोज़गार कहाँ?

दर्द बेचेंगे गीत गाएँगे
इस से ख़ुश-बख़्त कारोबार कहाँ?

जाम छलका तो जम गई महफ़िल
मिन्नत-ए-लुत्फ़-ए-ग़म-गुसार किसे?

अश्क टपका तो खिल गया गुलशन
रंज-ए-कम-ज़र्फ़ी-ए-बहार किसे?

ख़ुश-नशीं हैं कि चश्म ओ दिल की मुराद
दैर में है न ख़ानक़ाह में है

हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
हर सनम अपनी बारगाह में है

कौन ऐसा ग़नी है जिस से कोई
नक़्द-ए-शम्स-ओ-क़मर की बात करे

जिस को शौक़-ए-नबर्द हो हम से
जाए तसख़ीर-ए-कायनात करे