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ज़िंदगानी का ख़ला | शाही शायरी
zindagani ka KHala

नज़्म

ज़िंदगानी का ख़ला

मसऊद हुसैन ख़ां

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ज़िंदगानी का ख़ला
ये न भर पाया कभी

लाला-ओ-गुल को कभी प्यार किया
रात-भर तारों को बेदार किया

कम न होती थी मगर दिल की कसक
दिल का ग़म आँखों से बरसाया कभी

ये न भर पाया कभी
ज़िंदगानी का ख़ला

भर लिया उस में कभी दर्द-ए-चमन
कभी बे-नाम मक़ासिद की लगन

जिन से एहसास भी जाता था बहक
शीशा-ए-दिल को भी छलकाया कभी

ये न भर पाया कभी
ज़िंदगानी का ख़ला

फ़न की देवी ने भी बरसाई शराब
वक़्त की मौज ने फेंके दुर-ए-नाब

जिन से आई मिरे ख़्वाबों में चमक
जी ज़रा उन से भी बहलाया कभी

ये न भर पाया कभी
ज़िंदगानी का ख़ला