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ज़िंदान-नामा | शाही शायरी
zindan-nama

नज़्म

ज़िंदान-नामा

अफ़ीफ़ सिराज

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आज तारीकी-ए-शब हद सिवा लगती है
जाने क्या बात हुई है कि घुटन होती है

गो कि इक उम्र गुज़ारी है इसी ज़िंदाँ में
नीम-तारीक से इस गोशा-ए-वीराँ से मिरी

ऐसा लगता है कि देरीना शनासाई है
उस की दीवारों पे लिक्खे हैं कई अफ़्साने

जिन में दिल-गीर तमन्नाओं की गहराई है
उस की बे-जान ज़मीं ने मिरी आँखों में बहुत

ख़ुश्क सीने के लिए आब-ए-बक़ा पाया है
उस की मख़दूश शिकस्ता सी छतों ने अक्सर

शब ढले नाला-ए-दिल-गीर को दोहराया है
उसी ज़िंदान के रौज़न ने सहर के क़िस्से

मेहरबाँ हो के मिरे हाल पे दोहराए हैं
अब ये आलम है कि गर्दन का है हमराज़ ये तौक़

बेड़ियाँ हैं मिरे पैरों की सहेली अब तो
अब तो ज़ंजीर की झंकार में लुत्फ़ आता है

अब ये परवाना रिहाई का जला दो तो सही
उसी ज़िंदाँ को मिरी क़ब्र बना दो तो सही

ताक़ की शम-ए-तअ'ल्लुक़ भी बुझाओ तो सही
उस से कह दो कि रिहाई नहीं होने वाली

मुझ में ज़िंदाँ में जुदाई नहीं होने वाली
लज़्ज़त-ए-वस्ल उसे अब नहीं मिलने वाली

दिल गई रात सहर अब नहीं होने वाली