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ज़वाल के आईने में ज़िंदा अक्स | शाही शायरी
zawal ke aaine mein zinda aks

नज़्म

ज़वाल के आईने में ज़िंदा अक्स

सईद अहमद

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झुटपुटे के शहर में
बेगानगी की लहर में

मादूम होती रौशनी के दरमियाँ
ज़ीस्त के पाँव तले आए हुए

लोग हैं या च्यूंटियाँ
तन बदन की रेहल पर

मोहमल किताबें ज़र्द चेहरों की खुलीं
मंज़रों की खोजती बीनाइयाँ माज़ूर हैं

याद रखने की तमन्ना
भूलने की आरज़ू

हाफ़िज़े की बंद मुट्ठी में ठहरता कुछ नहीं
हर क़दम ख़्वाब ओ ख़याल वस्ल की लज़्ज़त लिए

ज़ात के नीले समुंदर में कहीं
इन जज़ीरों की हवा में साँस लेते जो मुक़द्दर में नहीं

ढूँडते हैं कश्तियों का रास्ता
हर सुब्ह के अख़बार में

ख़ुद-कलामी की सड़क पर दूर तक
(लड़खड़ाते ज़र्द पत्तों की तरह)

खोलते हैं कशमकश की गठरियाँ
खुलती नहीं

भीगते हैं तेज़ बारिश में नदामत की मगर
रूह की आलूदगी धुलती नहीं