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ज़र्द-चमेली | शाही शायरी
zard-chameli

नज़्म

ज़र्द-चमेली

सूफ़िया अनजुम ताज

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ये किस के क़दमों की चाप आई... कौन आया
ये बाम-ओ-दर अब जो ख़स्ता-जाँ हैं

ये चौंक उठ्ठे
और यास-ओ-हसरत से शक्ल हम सब की तक रहे हैं

दराड़ अपने जिगर की ले कर कर्ब की शिद्दत
को सह कर नीले से पड़ गए हैं...

किसी के हाथों के लम्स को तरस रहे हैं
नमी को आँखों में डबडबाए सेहन के रस्ते उबूर कर के

इसी सुतूँ के शिकस्ता साए में
सर झुकाए गुज़िश्ता यादों में खो गई हूँ

वही सुतूँ जो थके थके से
मलूल हैं और शिगाफ़-ए-तन्हाई से सुर्ख़ ईंटें

ज़ख़्म की मानिंद झाँकते हैं और रिस रहे हैं
जिसे चमेली की ज़र्द बाहें लगा के सीने से

कह रही हैं दुखों को तेरे मैं जानती हूँ
तुझी में तो जज़्ब हो चुकी हूँ

वो पलकें ख़्वाबों से उलझी उलझी वो सुर्ख़ जोड़े में सहमी सहमी
बसी हिना में लरज़ती बाहें तिरी ही गर्दन में थीं हमाइल

तुम्हीं ने जिस को विदाअ किया था वो दूर जा कर इक ऐसी बस्ती में बस गई है
जहाँ कोई हम-ज़बाँ नहीं है

मुंडेर पर की नहीफ़ बेलें
चारों जानिब को देखती हैं... वो कैसे बोलें कि उन के लब पे

सुकूत-ए-पैहम की मोहरें सी लगी हुई हैं
मगर दुआ इक फ़ज़ा में गूँजी

कि तू जहाँ है वहीं खिले तू
बला से दामन है मेरा ख़ाली

नहीं मयस्सर जो बूँद इक भी!