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ज़ैबुन्निसा एक नज़्म तुम्हारे लिए भी | शाही शायरी
zaibunnisa ek nazm tumhaare liye bhi

नज़्म

ज़ैबुन्निसा एक नज़्म तुम्हारे लिए भी

मक़सूद वफ़ा

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क्या अजब शाम है! देखो ज़ैबुन्निसा
फ़ुर्सतों में किसी पेड़ की नर्म छाँव में सोची हुई

आबशारों से गिरते हुए पानियों में नहाई हुई
तेरे मल्बूस की ख़ुशबुओं को उड़ाती हुई

क्या अजब शाम है
तेरे शानों पे आँचल ठहरता नहीं

और तू ने हवा को बहाना किया
कितनी चालाक हो

चाय में अपनी पोरों की शीरीनियाँ घोल कर पूछती हो
कि चीनी के कितने चम्मच लीजिएगा

समझ ये रही हो
कि हम तेरे साँसों की और तेरी धड़कन की रफ़्तार को जानते ही नहीं हैं

सुनहरी फ़ज़ा को हंसाती हुई सादा लड़की
तुझे क्या ख़बर है

अजब ज़ाइक़ा बन गया है लुआब-ए-दहन
छू के देखा नहीं और अज़बर किया तेरा सारा बदन

तेरे तन से लिपटती चली जा रही है मिरी हर नज़र
किस तरह से छुपाएगा तेरा बदन

ये तेरा पैराहन