छपक की
आवाज़ के साथ
ज़ेहन के पानियों में
गिरता है
लफ़्ज़ों का पत्थर
बनते बिगड़ते
एहसासों के
घेरे
मिट जाएँगे
बिना कोई निशान छोड़े
मगर ये ज़हर-आलूदा पत्थर
पड़े रहेंगे यूँ ही
ज़ेहन की
तलहटियों में
रेंगते
अपनी ही तरह
ज़हर-आलूदा
नज़्म
ज़हर
ख़दीजा ख़ान