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ज़हर | शाही शायरी
zahr

नज़्म

ज़हर

असलम आज़ाद

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शब का सन्नाटा
अब तो पिघल जाएगा

रूह की तीरगी भी बिखर जाएगी
मेरे इस आईना-ख़ाना-ए-जिस्म में

कितने सूरज
ब-यक वक़्त दर आए हैं

अब ज़मीं की तिरी
ख़ुश्क हो जाएगी

साँप का ज़हर
सारा निकल जाएगा