शब का सन्नाटा
अब तो पिघल जाएगा
रूह की तीरगी भी बिखर जाएगी
मेरे इस आईना-ख़ाना-ए-जिस्म में
कितने सूरज
ब-यक वक़्त दर आए हैं
अब ज़मीं की तिरी
ख़ुश्क हो जाएगी
साँप का ज़हर
सारा निकल जाएगा
नज़्म
ज़हर
असलम आज़ाद
नज़्म
असलम आज़ाद
शब का सन्नाटा
अब तो पिघल जाएगा
रूह की तीरगी भी बिखर जाएगी
मेरे इस आईना-ख़ाना-ए-जिस्म में
कितने सूरज
ब-यक वक़्त दर आए हैं
अब ज़मीं की तिरी
ख़ुश्क हो जाएगी
साँप का ज़हर
सारा निकल जाएगा