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ये रात | शाही शायरी
ye raat

नज़्म

ये रात

ख़लील मामून

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ये रात है या हयात है पुल-ए-सिरात है
अँधेरे में लम्हों की तेज़ धार पर चले हुए

हल्की आँख मलते हुए
लहूलुहान क़दम

लेकिन कट कर गिरते हैं नहीं
करते भी नहीं

ज़ख़्मी पैर लिए अभी और कितनी दूर चलना है
मालूम नहीं

इस रास्ते की सरहद
हमेशा नज़दीक दिखाई देती है

लेकिन नज़दीक पहुँचते ही मादूम हो जाती है
और हम एक और रास्ता

एक और रहगुज़ार उभर आती है
शायद यही मंज़िल भी है और यही रास्ता भी है

शायद यही इस ज़िंदगी का साहिल भी है
कि हम चलते रहें

ख़ामोश या फिर चिल्लाते या गाते हुए
ख़ुद अपने आप को कोई गीत कोई नग़्मा

सुनाते हुए
गाने वाले भी हम सुनने वाले भी हम

हमारी दुआएँ भी थी
हमारी ज़बान से निकल कर हमारे

दिल तक ही जाती हैं
दिल अगर सुन ले तो दुआओं में असर आ जाता है

न सुने तो हम हाथ ऊपर उठा कर नीचे गिराते रहते हैं
और रोते रहते हैं

इस रात के अँधियारे में
खिले हुए ज़ख़्मों के फूल भी हमारे

हमारी आहों के काँटे भी हमारे
हम तुम्हारे तुम भी हमारे

ख़ुशियाँ भी अपनी ग़म भी हमारे
इस फूल और धूल से निकल जाने के बअ'द

पुल-ए-सिरात से फिसल जाने के बअ'द
तक़दीर सँभल जाने के बअ'द

जब आँख खुलेगी
तो कोई फूलों की बीच हमारी मुंतज़िर न होगी

हमारी नींदों में
कोई हँसता हुआ ख़्वाब नहीं आएगा

हमारे हाथों में कोई गुलाब नहीं आएगा
हमारे सामने कोई बाम-ए-शराब

और बाँहों में कोई शहाब नहीं आएगा
आएगा तो

इक मुहीब सन्नाटा
इक लम्बी ख़ामोशी

इक न सुनाई देने वाली आवाज़
इक न दिखाई देने वाला ख़ला

जिस में न हम हैं
न हमारा साया होगा

न होने का इल्म
न होने का एहसास

एक ऐसा लम्बा पुल
जिस की कहानी हम अपने दूसरे शहर में भी

सुना न पाएँगे
हम वहाँ से लौट कर

दोबारा यहाँ आ न पाएँगे