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ये कौन सा शहर है | शाही शायरी
ye kaun sa shahr hai

नज़्म

ये कौन सा शहर है

परवेज़ शहरयार

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हैरान हूँ
ये कौन सा शहर है

'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की दिल्ली कभी ऐसी तो न थी
हर गली हर नुक्कड़ पर साँप कुंडली मारे बैठे हैं यहाँ

पैदा होते ही कोई भी सँपोला
डसने के लिए पर तोलने लगता है

जिधर देखिए
हर जगह साँप ही साँप हैं

कहीं ख़ूनी दरवाज़े के अक़ब से
तो कहीं धौला-कुआँ के फ़्लाई ओवर पर

हर जगह कुंडली मारे हुए यहाँ
हज़ार-हा साँप ऐसे हैं

जो हर दम तय्यार बैठे हैं
मौक़ा मिलते ही

वो किसी भी नर्म-ओ-गुदाज़ बदन को
निशाना अपना बना लेते हैं

अपने ज़हरीले दाँत गाड़ ने के लिए
जब वो फनफना कर बाहर आते हैं

किसी भी राहगीर का रस्ता रोके
एक दम

तन के खड़े हो जाते हैं
हत्ता कि

बूढ़ा नाग भी अब यहाँ
अपने खंडर में तन के खड़ा है

उसे भी इंतिज़ार है
बरसात की उस काली अँधेरी रात का है

जब वो बुल-हवस
अपने कोहना-मश्क़ दाँतों को

किसी नर्म-ओ-नाज़ुक ग़ज़ाला पर
तेज़ कर सके हमला-ए-ख़ूँ-रेज़ कर सके

अपनी उम्र के इस आख़िरी पड़ाव में वो बुल-हवस
कोई वारदात-ए-जुनूँ-अंगेज़ क़यामत-ख़ेज़ कर सके

या ख़ुदा
ये कौन सा मक़ाम है

क्या ये तेरा क़हर नहीं है
क्या ये वही पुराना शहर नहीं है

सोचता हूँ
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की दिल्ली कभी ऐसी तो न थी