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ये कैसी घड़ी है | शाही शायरी
ye kaisi ghaDi hai

नज़्म

ये कैसी घड़ी है

रफ़ीक़ संदेलवी

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ये कैसी घड़ी है
ज़मानी तसलसुल का पहिया घुमा कर

यहाँ वक़्त को
जैसे फ़ितरत से काटा गया है

ख़लीजें जो रखी गईं
नूर-ओ-ज़ुल्मत के माबैन

इन सब को पाटा गया है
समय रात का है

मगर धूप
सूरज से ले कर इजाज़त

हमारे सिरहाने खड़ी है
ये कैसी घड़ी है

ये कैसी घड़ी है
कि जैसे हमारे सिरहाने का

बिल्कुल हमारी ही तक़्वीम का
और हमारे ज़माने का

इक ताक़ है
जिस पे कोई मुक़द्दस सहीफ़ा नहीं

इक रिया-कार मशअ'ल धरी है
मुसफ़्फ़ा सुराही में

आब समावी नहीं
रेग-ए-इस्याँ भरी है

बहिश्ती दरख़्तों के
पाक और रस अस्मार में

कोई नोक-ए-निजासत गड़ी है
ख़ुदाया

तिरे नेक बंदों पे
उफ़्ताद कैसी पड़ी है

ये कैसी घड़ी है