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ये कहाँ जाएँगे | शाही शायरी
ye kahan jaenge

नज़्म

ये कहाँ जाएँगे

अबरारूल हसन

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मो'जिज़ा था अजब
आहनी छनछनाहट से ज़ंजीर ख़ुद अपने क़दमों में आ कर गिरी

भारी-भरकम दहाने खुले
और चर्ख़ चूँ की फ़रियाद के साथ

पटरी पर डब्बे सरकने लगे
सुब्ह की दूधिया छाँव में

आँख मलते हुए सब ये हैरत-ज़दा देखते थे
कोई खींचने वाला इंजन न था

और तराई उतरती गई
उन की रफ़्तार बढ़ती गई

ख़ार-ओ-ख़स को कुचलती हुई
तेज़ से तेज़-तर

तेज़ तर तेज़-तर
अब ये पटरी जहाँ उन को ले जाए

जाएँगे
अब ये मुसाफ़िर

जो इस फ़ज़्ल-ए-रब्बी पे नाज़ाँ थे
हैराँ हैं

मश्कूक नज़रों से
इक दूसरे से गुरेज़ाँ से

वहमों को दिल में छुपाए हुए
तेज़ रफ़्तार बढ़ते चले जाएँगे

ये कहाँ जाएँगे