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ये आँखें | शाही शायरी
ye aankhen

नज़्म

ये आँखें

मोहम्मद अनवर ख़ालिद

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ये आँखें हर दर-ओ-दीवार में आँखें
ये आँखें रेस्तुरानों में ऐवानों में क्लबों में

तिरे घर की अँधेरी कोठरी में
जिस्म में रूहों में साँसों में

कलीसा के धुआँ देते हुए हर ताक़ में आँखें
ये आँखें मिम्बर-ओ-मेहराब में आँखें

ये आँखें जागते में ख़्वाब में आँखें
ये आँखें ग़ोल की सूरत झपटती हैं

कि जैसे शहर में ख़ूनी परिंदे आ गए हैं
रफ़ीक़-ए-जाँ अँधेरी सीढ़ियों में यूँ अकेली मत खड़ी होना

ये आँखें