हर एक कोने में हर कन में है लहू का सुराग़
टपक रहा है लहू आस्तीन-ए-क़ातिल से
झलक रहा है अभी ख़ौफ़ चश्म-ए-बिस्मिल से
हैं ख़ाक पे नए धब्बे हैं बाम पे नए दाग़
हर एक कोने में हर कन में है लहू का सुराग़
हुई है आदमियत सर्फ़ दीन-ए-शैताँ पर
हुआ है सर्फ़ लहू तिश्नगी-ए-हैवाँ पर
ये ख़ून-ए-ख़ाक-नशीनी बना है रिज़्क़-ए-सितम
हुआ है सिलसिला-ए-जौर के अलम पे रक़म
पुकार करता है बे-आसरा यतीम लहू
किसी के पास समाअ'त का वक़्त है न दिमाग़
ज़बान-ए-मुद्दई ख़म है शहादत आवारा
ज़मीं के सीने पे बहता है ख़ून का धारा
हर एक कोने में हर कन में है लहू का सुराग़
नज़्म
यतीम इंसाफ़
अशोक लाल