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यद-ए-बैज़ा | शाही शायरी
yad-e-baiza

नज़्म

यद-ए-बैज़ा

हिमायत अली शाएर

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मिरी हथेली के साँप कब तक डसेंगे मुझ को
मिरी हथेली के साँप जो अब

मिरी रगों में उतर चुके हैं
बदन को ज़ंजीर कर चुके हैं

मैं ख़्वाब देखूँ तो कोई आँखों पे हाथ रख दे
क़दम उठाऊँ तो कोई मेरे क़दम पकड़े

पलट के देखूँ तो कोई पीछे न कोई आगे
बस एक साया

मिरी हक़ीक़त का इक किनाया
मिरी हक़ीक़त कि में अँधेरे की रहनुमाई में चल रहा हूँ

अज़ल से इक सामरी के साँपों में पल रहा हूँ
मिरी हथेली कि जिस में रौशन

वो आग भी है वो नूर भी है
जो दस्त-ए-मूसा है तूर भी है

जो इस असा की तलाश में है
जो हर तही-दस्त की मता-ए-गिराँ-बहा है

जो कुश्तगान-ए-तिलिस्म-ए-ज़र की हयात-ए-ताज़ा का मो'जिज़ा है
जो अहद-ए-हाज़िर के साहिरों

और उन के पानियों के वास्ते
ज़रबत-ए-क़ज़ा है