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याद | शाही शायरी
yaad

नज़्म

याद

अज़ीज़ तमन्नाई

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शब की चादर ओढ़ कर आई है
लम्हों की महकती धूल में लिपटी हुई

मेरी जानिब धीरे धीरे बढ़ रही है
और मैं अपने बिस्तर-ए-ख़ाशाक-ओ-ख़स पर

नीम-वा आँखों से धुँदली रौशनी को
देर से तकता हुआ

दम-ब-ख़ुद हूँ झिलमिलाती सोच में खोया हुआ
वो क़रीब आती है

मेरी साँस में शोले जगाती है
मिरी धड़कन की लय को कर रही है तेज़-तर

और मुझे बेदार-तर होश्यार-तर
हाथ जब बढ़ते हैं छूने के लिए

और हो जाती हैं गहरी चादर-ए-शब की तहें
और छा जाती है सँवलाए हुए लम्हों की धूल

याद बन जाती है इक मौहूम भूल