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वो जो कहीं नहीं है | शाही शायरी
wo jo kahin nahin hai

नज़्म

वो जो कहीं नहीं है

इंजिला हमेश

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तेरा कोई दिन नहीं
तेरा कोई रूप नहीं

अबू-सुफ़ियान की हिंदा
इस रंग-मंच में

तेरी कोई जगह नहीं
अज्दाद के इंतिक़ाम में

तू कहाँ है
नस्लों की ख़ून-आशाम जंग में

तू जलती रही
कलेजा चबाने से हुसैन का ख़ून बहाने तक

ज़मीन-ओ-आसमान तुझे मलामत करते रहे
बद-बख़्त-ओ-शिकस्त-ख़ुर्दा

हिंदा बिंत-ए-अतबा
तेरा क़बीला तेरी वहशत से पहचाना गया

तेरा पागल-पन
तेरी वज्ह-ए-शोहरत है

किसी फ़ैसले किसी राय में तेरा कोई हवाला नहीं
तुझे वहशी बनाने वाले तेरे अध मरे अस्लाफ़

तेरी कोख ज़हर-आलूद कर के
तुझे बे वजूद कर के

ज़मीन पर मुसल्लत रहे आसेब बन कर
बद-बख़्त हिंदा

जो इतना शुऊ'र तुझे होता
तो समझ पाती

जबरी निज़ाम राइज करने के लिए
हर बार कोख बरबाद की गई