इक अजब आग सी है सीने में
जैसे हो सीना-ए-शमशीर की आग
इक अजब आग सी है बातिन में
जैसे हो नाला-ए-शबगीर की आग
जैसे इक शोला-ए-जव्वाला फ़लक को छू ले
सीना-ए-सर्द में मेरे है वही आग अभी
तोदा-ए-बर्फ़ से जो बुझ न सके
बन के शोला ये बढ़ी जाती है
सू-ए-अफ़्लाक उठी जाती है
उस की ज़द में हैं
ये अश्या-ए-निज़ाम-ए-आलम
बस कि इक ख़ौफ़ है पहलू में मिरे
अपनी ही आग से अफ़्कार न जल जाएँ कहीं
सोचता हूँ कि दुआ ही माँगूँ
मेरे आतिश-कदा-ए-सीना को
मेरा रब लुत्फ़-ओ-करम का कोई चश्मा कर दे
नज़्म
वो एक आग
कौसर मज़हरी