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वो बोलती कुछ भी नहीं | शाही शायरी
wo bolti kuchh bhi nahin

नज़्म

वो बोलती कुछ भी नहीं

ज़ेहरा अलवी

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हँसती मुस्कुराती है
न अब खिलखिलाती है

वो घर से बाहर जाते हुए
डर डर सी जाती है

ख़ुद को पर्दों में छुपाती है
वो बोलती कुछ भी नहीं

सुना है
किसी आली घराने के

किसी अच्छे ओहदे के
लड़के ने

उसे मसल डाला था
इंसाफ़ की अदालत में

कुछ नोटों के बदले में
इंसाफ़ कुचल डाला था

उस के मजबूर बाबा ने
बाक़ी बेटियों की ख़ातिर

मुजरिम मुआफ़ कर दिया था
तब ही से

वो बोलती कुछ भी नहीं
बस आँसू बहाती है