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विसालिया | शाही शायरी
visaliya

नज़्म

विसालिया

रफ़ीक़ ख़याल

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धरती सुलग रही थी आकाश जल रहा था
बे-रंग थीं फ़ज़ाएँ मौसम बदल रहा था

ख़ुशबू मिरे बदन को गुलज़ार कर रही थी
वो कैफ़-ए-बे-ख़ुदी में कलियाँ मसल रहा था

करवट बदल रहे थे अरमान मेरे दिल के
जब चाँदनी का मंज़र दरिया में ढल रहा था

जल्वों का रक़्स मैं ने मस्ताना-वार देखा
बिन्त-ए-इनब का जाने दिल क्यूँ मचल रहा था

ऐसा भी एक आलम गुज़रा 'ख़याल' मुझ पर
मैं उस की जुस्तुजू में काँटों पे चल रहा था