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विसाल | शाही शायरी
visal

नज़्म

विसाल

अख़्तर हुसैन जाफ़री

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अजीब वो सैल था कि जिस ने
कनार-ए-दरिया की सरहदों में नए इज़ाफ़े किए हैं ताज़ा ज़मीन

आबाद कर गया है
अजीब वो धूप थी जो पेश-अज़-सहर की साअत के घर में उतरी

तो जैसे सोए हुए लबों पर
निशान-ए-उल्फ़त लगा गई है

अजीब लम्हा था जिस ने सर पर चमकते सूरज के गर्म रस्ते पे
पा-बरहना सफ़र किया है

वो धूप तेरे जमाल की थी
वो सैल मेरे ख़याल का था

वो लम्हा तेरे विसाल का था