EN اردو
विर्सा | शाही शायरी
wirsa

नज़्म

विर्सा

साहिर लुधियानवी

;

ये वतन तेरी मिरी नस्ल की जागीर नहीं
सैंकड़ों नस्लों की मेहनत ने सँवारा है इसे

कितने ज़ेहनों का लहू कितनी निगाहों का अरक़
कितने चेहरों की हया कितनी जबीनों की शफ़क़

ख़ाक की नज़्र हुई तब ये नज़ारे बिखरे
पत्थरों से ये तराशे हुए असनाम-ए-जवाँ

ये सदाओं के ख़म-ओ-पेच ये रंगों की ज़बाँ
चिमनियों से ये निकलता हुआ पुर-पेच धुआँ

तेरी तख़्लीक़ नहीं है मिरी तख़्लीक़ नहीं
हम अगर ज़िद भी करें उस पे तो तस्दीक़ नहीं

इल्म सूली पे चढ़ा तब कहीं तख़्मीना बना
ज़हर सदियों ने पिया तब कहीं नौशीना बना

सैंकड़ों पाँव कटे तब कहीं इक ज़ीना बना
तेरे क़दमों के तले या मिरे क़दमों के तले

नौ-ए-इंसाँ के शब-ओ-रोज़ की तक़दीर नहीं
ये वतन तेरी मिरी नस्ल की जागीर नहीं

सैंकड़ों नस्लों की मेहनत ने सँवारा है इसे
तेरा ग़म कुछ भी सही मेरा अलम कुछ भी सही

अहल-ए-सर्वत की सियासत का सितम कुछ भी सही
कल की नस्लें भी कोई चीज़ हैं हम कुछ भी सही

उन का विर्सा हूँ खंडर ये सितम ईजाद न कर
तेरी तख़्लीक़ नहीं तू इसे बरबाद न कर

जिस से दहक़ान को रोज़ी नहीं मिलने पाती
मैं न दूँगा तुझे वो खेत जलाने का सबक़

फ़स्ल बाक़ी है तो तक़्सीम बदल सकती है
फ़स्ल की ख़ाक से क्या माँगेगा जम्हूर का हक़

पल सलामत है तो तू पार उतर सकता है
चाहे तब्लीग़ बग़ावत के लिए ही उतरे

वर्ना 'ग़ालिब' की ज़बाँ में मिरे हमदम मिरे दोस्त
दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग

सोच ले फिर कोई ता'मीर गिराने जाना
तेरी ता'मीर से है जंग कि तख़रीब से जंग

अहल-ए-मंसब हैं ग़लत-कार तो उन के मंसब
तेरी ताईद से ढाले गए तो मुजरिम है

मेरी ताईद से ढाले गए मैं मुजरिम हूँ
पटरियाँ रेल की सड़कों की बसें फ़ोन के तार

तेरी और मेरी ख़ताओं की सज़ा क्यूँ भुगतें
उन पे क्यूँ ज़ुल्म हो जिन की कोई तक़्सीर नहीं

ये वतन तेरी मिरी नस्ल की जागीर नहीं
सैंकड़ों नस्लों की मेहनत ने सँवारा है इसे

तेरा शिकवा भी बजा मेरी शिकायत भी दुरुस्त
रंग-ए-माहौल बदलने की ज़रूरत भी दुरुस्त

कौन कहता है कि हालात पे तन्क़ीद न कर
हुक्मरानों के ग़लत दा'वों की तरदीद न कर

तुझ को इज़हार-ए-ख़यालात का हक़ हासिल है
और ये हक़ कोई तारीख़ की ख़ैरात नहीं

तेरे और मेरे रफ़ीक़ों ने लहू दे दे कर
ज़ुल्म की ख़ाक में इस हक़ का शजर बोया था

सालहा-साल में जो बर्ग-ओ-समर लाया है
अपना हक़ माँग मगर उन के तआ'वुन से न माँग

जो तिरे हक़ का तसव्वुर ही फ़ना कर डालें
हाथ उठा अपने मगर उन के जिलौ में न उठा

जो तिरे हाथ तिरे तन से जुदा कर डालें
ख़्वाब-ए-आज़ादी इंसाँ की ये ता'बीर नहीं

ये वतन तेरी मिरी नस्ल की जागीर नहीं
सैंकड़ों नस्लों की मेहनत ने सँवारा है उसे