दूर तकज़ीब का फ़रहाद हूँ मेरी ख़ातिर
हक़ की आवाज़ सदाक़त की और शीरीं है
मेरा मंसब है हुसूल-ए-शीरीं
वस्ल-ए-शीरीं के लिए तेशा उठाता हूँ मैं
तेशा-ए-अज़्म-ओ-यकीं जो अभी कुंद नहीं
सीना-ए-संग अभी ख़ुश्क नहीं
हर रग संग में इक जूए रवाँ पिन्हाँ है
मैं कि फ़रहाद हूँ रग रग में मिरी
शो'ला-ए-क़तरा-ए-ख़ूँ जौलाँ है
मेरी गर्दन पे है सरबार अमानत की तरह
मेरे ही तेशे से कट सकता है लेकिन ये कभी
झुक तो सकता ही नहीं
जुट गए हाथ उठे और बने एक कमाँ
टूट सकती नहीं हाथों की कमाँ
छूट सकता नहीं तेशा मेरा
इस की हर ज़र्ब-ए-जवाँ से जब तक
रेज़ा रेज़ा नहीं हो
ज़ुल्म-ओ-तकज़ीब का ये कोह-ए-गिराँ

नज़्म
वस्ल-ए-शीरीं के लिए
ज़हीर सिद्दीक़ी