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वक़्त की रेत पे | शाही शायरी
waqt ki ret pe

नज़्म

वक़्त की रेत पे

आदिल मंसूरी

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वक़्त की रेत पे सूरज ने लहू थूका फिर
साअतें कोड़ा के दाग़ों में नहा कर निकलीं

मछलियाँ लम्स के हाथों में घड़ी भर न रुकीं
हड्डियाँ ख़्वाब के कुत्तों ने चबाईं शब भर

हिजरतें अपने मुक़द्दर में लहू-चेहरा हैं
कौन ख़म्याज़ा भुगतने की सलाख़ें चाटे

कौन ज़ंजीर के हल्क़ों में समुंदर बाँधे
कौन लफ़्ज़ों के मज़ारों पे नए फूल रखे

कौन सायों को तलाशे यहाँ क़िंदील लिए
अबरहा काबा की दीवार के साए में जले

काँच की चूड़ियाँ बजती हैं लहू की तह में