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वक़्त | शाही शायरी
waqt

नज़्म

वक़्त

अलीम दुर्रानी

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सहमी सहमी खोई खोई दश्त की दो हिरनियाँ
याद आती हैं मुझे वो ज़ख़्म-ख़ुर्दा लड़कियाँ

इन के चेहरे जगमगाते थे ख़िज़ाँ की धूप से
दर्द की बारिश हो जैसे रूप के बहरूप से

उन का दिल महरूमियों का एक गहरा ग़म लिए
और आँखें जिस तरह हों जलते-बुझते से दिए

आते जाते देखता था रोज़ उन को राह में
जैसे पागल हो चला था मैं भी उन की चाह में

फिर न जाने क्या हुआ किस लहर में वो खो गईं
कोई उन का हो गया या वो किसी की हो गईं