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'वली' | शाही शायरी
wali

नज़्म

'वली'

मैकश अकबराबादी

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ऐ दकन की सर-ज़मीं ऐ क़िबला-ए-हिन्दोस्ताँ
तेरे ज़र्रे मेहर हैं तेरी ज़मीं है आसमाँ

अज़मत-ए-माज़ी का दिल-अफ़रोज़ नज़्ज़ारा है तू
मशरिक़‌‌‌‌-ए-तहज़ीब का पाकीज़ा गहवारा है तो

तेरे हर पहलू में हैं एहसास की बेदारियाँ
तेरे हर मंज़र में हैं जज़्बात की सरशारियाँ

है ख़िज़ाँ ना-आश्ना तेरे गुलिस्ताँ की बहार
तुझ पे है साया-फ़गन दामान-ए-लुत्फ़-ए-किर्दगार

तेरे दरिया-ए-करम का जोश गौहर-बेज़ है
तेरी ज़र-अफ़्शाँ ज़मीं का फ़ैज़-ए-मर्दुम-ख़ेज़ है

जो जवाहर तू ने चमकाए हैं अपनी ख़ाक से
उन का सीना भर दिया है जल्वा-ए-इदराक से

वो 'वली' तेरा ही इक फ़रज़ंद है ख़ाक-ए-वतन
जिस की अज़्मत ने किया देहली में आग़ाज़-ए-सुख़न

रूह में जिस ने भरी उर्दू के बे-जाँ जाम में
कैफ़-ए-एहसास-ए-अमल है जिस के हर पैग़ाम में

इक हयात-ए-नौ अता की जिस ने मौजूदात को
जिस ने दी इक रूह-ए-ताज़ा क़ल्ब-ए-एहसासात को

उस फ़ज़ा-ए-आब-ओ-गिल को नूर जिस ने कर दिया
ज़र्रे ज़र्रे को जो अब तूर जिस ने कर दिया

सोज़ की रंगीनियाँ बरसाएँ जिस ने साज़ से
जगमगा उट्ठे सितारे जिस की हर पर्वाज़ से

जिस की फ़य्याज़ी से हर क़तरा समुंदर हो गया
जिस के नक़्श-ए-पा से हर ज़र्रा मुनव्वर हो गया

जो नहीं हम में मगर हम याद करते हैं जिसे
दिल के शेरिस्तान में आबाद करने लूँ जिसे

मुख़्लिसाना याद में जिस की है अपना नाम भी
याद-ए-माज़ी में है मुस्तक़बिल का इक पैग़ाम भी