न सुब्हें न शामें
हमारे अंदर बस एक ही वक़्त आ ठहरा
सब लम्हे यकजा हो कर अस्र का वक़्त ओढ़े
हमारी उँगली पकड़ के
हमें ख़सारों के जंगल में ले आए
जहाँ हर नया मौसम
ख़सारों की इक नई फ़स्ल बो के
जब रुख़्सत होता है
तो हम अस्र के वक़्त से बे-नियाज़
चुप-चाप उस फ़स्ल को काट लेते हैं
और जा-ब-जा ढेर लगाते हुए
फिर से इक नई फ़स्ल बोने लगते हैं
नज़्म
वलअस्र...
मुनीर अहमद फ़िरदौस