मुझे वहशत का मतलब कब पता था आज से पहले
कभी ऐसा हुआ ये दिल ज़रा घबरा गया
तो कह दिया कि दिल बहुत वहशत-ज़दा है
और ऐसा भी हुआ
गर सख़्त लहजे में किसी ने बात की
या बात रद कर दी
न कोई काम हो या न नींद आई
तो फिर भी कह दिया वहशत बहुत है
मुझे ये लफ़्ज़ अच्छा ही बहुत लगता था
पर ऐसे नहीं देखो
कि मैं ने उस का मतलब आज समझा है
मैं गुम-सुम तो नहीं चुप हूँ
मिरी सारी तवज्जोह मेरे हाथों पर लगी है
मेरे नाख़ुन यूँ हथेली में ख़ुबे हैं
दिल ये कहता है
कि मेरी उँगलियाँ इस जिल्द के नीचे दबे
इक इज़्तिराबी से ख़ला को पुर करें
या फाड़ डालें अब
कई लहरें सी बेचैनी से यूँ करवट बदलती हैं
मिरा दिल चाहता है ये
कि मैं खींच कर
अजब वहशत के मक़्नातीस से जुड़ कर
ख़ुद अपने काँपते हाथों की पोरों से निकल जाऊँ
मगर मैं अपने सीने से उभर कर
आ अटकती हूँ हल्क़ में
ख़ुश्क है जो प्यास से
उन आँसुओं से
जो नहीं बनते
यहाँ मैं कहाँ जाऊँ
न आगे आ सकूँ मैं और न वापस जा सकूँ मैं अब
मैं जैसे बंद हूँ शीशे के डब्बे में
मैं अपने ख़्वाब से अपने हल्क़ से
जिस क़दर कोशिश करूँ
बाहर निकलने की उभरने की
तो मेरा साँस रुकता है
कोई आवाज़ आती है
कहीं अंदर ही लेकिन डूब जाती है
मुझे सब कहीं पर भी नहीं होती
किसी को मैं नज़र आती हूँ पर शायद
उसे भी अपने अंदर से निकलने का कोई रस्ता नहीं मिलता
नज़्म
वहशत
अम्बरीन सलाहुद्दीन