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ऊँचे दर्जे का सैलाब | शाही शायरी
unche darje ka sailab

नज़्म

ऊँचे दर्जे का सैलाब

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

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ज़मीं का हुस्न सब्ज़ा है
मगर अब सब्ज़ पते ज़र्द हो कर झड़ते जाते हैं

बहारें दैर से आती हैं
जुगनू है न तितली ख़ुशबुओं... से रंग रूठे हैं

जहाँ जंगल हुआ करते थे और बारिश धनक ले कर उतरती थी
जहाँ बरसात में कोयल, पपीहे चहचहाते थे

वहाँ अब ख़ाक उड़ती है
दरख़्तों की कमी से आ गई है धूप में शिद्दत

फ़ज़ा का मेहरबाँ हाला पिघलता जा रहा है
आसमाँ ताँबे में ढलता जा रहा है

इस लिए बे-मेहर मौसम अब सताते हैं
धुएँ के, गर्द के, आलूदगी के, शोर के मौसम

गली, कूचों, घरों में कार-ख़ानों में बस अब
सड़क पर शोर बहता है

सुनाई ही नहीं देता हमारा दिल जो कहता है
मोहब्बत का परिंदा आज-कल ख़ामोश रहता है

परिंदे प्यास में डूबे हैं और पानी नहीं पीते
कि दरियाओं की शिरयानों में अब शफ़्फ़ाफ़ पानी की जगह आलूदगी का ज़हर है

हमें जब बहर ओ बर की हुक्मरानी दी गई है तो ये हम को सोचना होगा
ज़मीनों, पानियों, माहौल की बीमारियों का कोई मुदावा है

कहीं इन का सबब हम तो नहीं बनते?
सबब कोई भी हो आख़िर मुदावा कुछ तो करना है

ये तस्वीर-ए-जहाँ है रंग इस में हम को भरना है