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उस के नाम | शाही शायरी
uske nam

नज़्म

उस के नाम

शौकत परदेसी

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वही ग़ुंचों की शादाबी वही फूलों की निकहत है
वही सैर-ए-गुलिस्ताँ है वही जोश-ए-मसर्रत है

वही मौज-ए-तबस्सुम है वही अंदाज़-ए-फ़ितरत है
वही दाम-ए-तख़य्युल है वही रंग-ए-हक़ीक़त है

वही सुब्ह-ओ-मसा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

वही मख़मूर रातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
वही दिल-चस्प बातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं

वही पुर-कैफ़ घातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं
सितारों की बरातें अब भी तस्वीर-ए-तख़य्युल हैं

वही मौज-ए-सबा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

घटाएँ अब भी उठती हैं तलातुम अब भी होता है
शगूफ़े अब भी खिलते हैं तबस्सुम अब भी होता है

अनादिल अब भी गाते हैं तरन्नुम अब भी होता है
जवानी अब भी हँसती है तकल्लुम अब भी होता है

हर इक शय ख़ुश-नुमा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

तुम्हारी याद ऐसे में सताती है मुझे अब भी
शब-ए-तन्हाई में पहरों रुलाती है मुझे अब भी

सबा के दोश पर आ कर जगाती है मुझे अब भी
हवास-ओ-होश से बे-ख़ुद बनाती है मुझे अब भी

तमन्ना-ए-वफ़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

जुनूँ-सामाँ नज़ारों के तक़ाज़े अब भी होते हैं
तमन्ना अब भी होती है इरादे अब भी होते हैं

ज़माना अब भी हँसता है तमाशे अब भी होते हैं
निगाहें अब भी उठती हैं इशारे अब भी होते हैं

ख़ुशी दिल-आश्ना होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

रहेगा यूँ लबों पर शिकवा-ए-जौर-ए-ख़िज़ाँ कब तक
सताएगा भला नाज़ुक दिलों को ये जहाँ कब तक

मुसलसल आज़माइश और पैहम इम्तिहाँ कब तक
मैं तुम से दूर रह कर जी सकूँगा यूँ यहाँ कब तक

तमन्ना क्या से क्या होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं

मुझे दिन रात रहती है तुम्हारी जुस्तुजू अब भी
तसव्वुर में किया करता हूँ तुम से गुफ़्तुगू अब भी

ख़ुदा शाहिद है मेरे दिल में है ये आरज़ू अब भी
कि तुम आ जाओ चश्म-ए-मुंतज़र के रू-ब-रू अब भी

ये ख़्वाहिश बारहा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं
बड़ी रंगीं फ़ज़ा होती है लेकिन तुम नहीं होतीं