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उस का दुख | शाही शायरी
us ka dukh

नज़्म

उस का दुख

कुमार पाशी

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वो मुंतज़िर थी
हज़ार सदियों से मुंतज़िर थी

मैं एक ज़र्रा
हवा के रथ पर सवार, हँसता हुआ

ख़लाओं में गुनगुनाता
हज़ार-हा साल के सभी हादसों की गर्मी रगों में भर कर

घने दरख़्तों के नर्म सायों में आ के उतरा
वो मुंतज़िर थी

मुझे थकन से निढाल देखा
तो खिलखिला कर लिपट गई मुझ से बे-तहाशा

मिरे बदन को वो रंग बख़्शा
कि ख़ुशबुओं में नहाईं पगडंडियाँ सुहानी

वो नूर मुझ को अता किया
जगमगा गईं जंगलों की तन्हाइयाँ पुरानी

हज़ार सदियाँ गुज़र चुकी हैं
मैं आज ख़ुद को डुबो चुका हूँ हयात के

ख़ैर ओ शर में यकसर
मगर वो अब भी पुकारती है मिरे लहू को

मिरे जनम की वो मुंतज़िर है
हज़ार सदियों से मुंतज़िर है