यहाँ मेरे अंदर दरख़्तों की कितनी क़तारें सुलगती रहेंगी
वहाँ तेरे अंदर तड़पते हुए लफ़्ज़ लम्हे
परिंदे क़तारों में बैठे हुए रो रहे हैं
दरख़्तों के पीछे कई चाँद टूटे हुए रेज़ा रेज़ा
लहू में नहाए हुए कितने सूरज मज़ारों के कतबे!
कहीं ढोल की थाप पर रक़्स-ए-मर्ग-ए-मुसलसल
कहीं दलदलों में उतरते हुए जिस्म जैसे
गुनहगार अपने किए की सज़ा पा रहे हैं
न तू अपनी पलकों के काले फरेरे उठा कर कहीं जा रही है
न मैं कोई परचम उठाए हुए चल रहा हूँ
मिरे पास बैठा हुआ जिस्म मुझ से ये क्यूँ पूछता है
किसी गुल की माहियत-ए-रंग क्या है?
सितारों का आहंग क्या है?
ये ख़ुशबू है या बारिश-ए-संग क्या है
ये सब ज़िंदा रहने के हीले वसीले अबस हैं
अज़ल से अबद तक वही सिलसिला है
यहाँ से वहाँ तक वही धुँद फैली हुई है
मगर धुँद से कैसे निकलें यही सोचते सोचते मर गए हम
ज़मीं से शजर का जनम ज़िंदगी की अलामत मगर मौत भी है
मिरी उम्र का आख़िरी दिन
किसी बाब-ए-आतिश-ज़दा पर खड़ा मुस्कुराने लगा है
कहीं हिज्र की साअतें गिनते गिनते मुझे नींद आई हुई है
शुमार-ए-सितारा ने शायद मिरे दिल की रंगीं ख़लियों में
काले लहू की इबारत लिखी है
समुंदर में डूबा हुआ इक मकाँ जल रहा है
नज़्म
उम्र का आख़िरी दिन
अहमद ज़फ़र