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उलझन | शाही शायरी
uljhan

नज़्म

उलझन

नज़ीर मिर्ज़ा बर्लास

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चाँद की नज़्र किए मैं ने नज़र के सज्दे
हुस्न-ए-मासूम के जल्वों का परस्तार रहा

मैं ने तारों पे निगाहों की कमंदें फेंकीं
एक रंगीन हक़ीक़त का तलबगार रहा

ज़ेहन के पर्दे पे रक़्साँ है कोई अक्स-ए-जमील
हुस्न के रूप में शायद वो यकायक मिल जाए

हर नए जल्वे से बे-साख़्ता यूँ लिपटा हूँ
जैसे बिछड़ा हुआ इक दोस्त यकायक मिल जाए

मैं ने अल्फ़ाज़ में रूमान के नग़्मे ढाले
सई-ए-तख़्लीक़-ए-तरन्नुम से सुकूँ मिल न सका

मुतमइन हो न सकीं मेरी सुलगती नज़रें
हस्ब-ए-दिल-ख़्वाह मुझे ज़ौक़-ए-जुनूँ मिल न सका

मेरी आशुफ़्ता-निगाही का असर छिन जाए
मुझ से ऐ काश मिरा ज़ौक़-ए-नज़र छिन जाए