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उल्झन | शाही शायरी
uljhan

नज़्म

उल्झन

ख़ालिद कर्रार

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व्यवस्था भी बहुत ज़ियादा नहीं है
जतन जोखम बहुत हैं

आगे जो जंगल है वो
उस से भी ज़ियादा गुंजलक है

तपस्सया के ठिकाने
ज्ञान के मंतर

ध्यान की हर एक सीढ़ी पर
वही मूरख

अजब सा जाल ताने बैठा है युगों से
न जाने क्यूँ

मिरे रावण से उस को
पराजय का ख़तरा है

तो यूँ करता हूँ
अब के ख़ुद को ख़ुद से त्याग देता हूँ