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उल्फ़त | शाही शायरी
ulfat

नज़्म

उल्फ़त

अबरारूल हसन

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तू मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना
जैसे अँगारों पे छींटों से धुआँ

बिंत-ए-महताब को हाले में लिए
तो फ़रोज़ाँ हो मगर सारी तपिश मेरी हो

फैले अफ़्लाक में बे-सम्त सफ़र
साथ में वक़्त का रहवार लिए

जिस तरफ़ मौज-ए-तमन्ना कह दे
जुस्तुजू शौक़ का पतवार लिए

गुफ़्तुगू रब्त के एहसास से दूर
ख़ामुशी रंज-ए-मुकाफ़ात से दूर

चाँदनी की कभी सरगोशी सी
फूल के नर्म लबों को चूमे

गर्द अंदेशा को शबनम धो दे
क़हक़हे फूटीं ताम्मुल के बग़ैर

नूर उबले कभी फ़व्वारों में
और नुक़्ते में सिमट आए कभी

तह-ब-तह खोले रिदा ज़ुल्मत की
अपनी बेबाक निगाहों से मुनव्वर कर दे

नुक़्ता-ए-वस्ल ये मिटता हुआ धब्बा ही सही
होश बहता है तो बह जाने दे

तो मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना