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उफ़क़ पे | शाही शायरी
ufaq pe

नज़्म

उफ़क़ पे

शहाब सर्मदी

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वो एक मैं ही नहीं हूँ
न जाने कितने हैं

जो सोचते हैं समझते हैं चाहते भी हैं
कि फूटती हुई पहली किरन से भी पहले

उफ़ुक़ पे वक़्त के चमकें
नया सा रंग भरें

जो सुब्ह हो
तो नसीम-ए-सहर का साथ धरें

समीर बन के बहें
रंग-ओ-बू की धरती पर

गुलों से बात करें
हर गली से खुल खिलें

मगर ये वक़्त
ये सहमा हुआ डरा हुआ वक़्त

ये अपने साए से बिदका
ये हाँफता हुआ वक़्त

कभी इधर को रवाँ है कभी उधर को दवाँ
सपीदा-ए-सहरी क्या

सवाद-ए-शाम कहाँ
उफ़ुक़ पे कुछ भी नहीं

है बस इक ग़लीज़ धुआँ