दिन ढला जाता है ढल जाएगा खो जाएगा
रेग-अटी दरज़ से दर आई है इक ज़र्द किरन
देख कर मेज़ को दीवार को अलमारी को
फ़ाइलों, काग़ज़ों, बिखरी हुई तहरीरों को
फिर उसी दरज़ से घबरा के निकल जाएगी
और बाहर वो भली धूप, सुनहरी किरनें
जो कभी अब्र के आग़ोश में छुप जाती हैं
कभी पेड़ों के ख़ुनुक सायों में लहराई हैं
पास ही पेड़ पे हुदहुद की खटा-खट खट-खट
और निढाल उँगलियाँ कहती हैं थका-थक थक-थक
महज़ अबजद की बदलती हुई बे-हिस तरतीब
लफ़्ज़ ही लफ़्ज़ पे एहसास न अरमाँ कोई
और अरमान वो भटके हुए राही जिन के
साथ साथ आते हुए भूत की सूरत ख़दशे
सर्द हाथों से कभी पाँव जकड़ लेते हैं
और कभी आहनी दीवार उठा देते हैं
मैं ने देखा है कहीं घिर के जब आए बादल
चीख़ उठे लोग कि अब खेतियाँ लहराएँगी
मैं ने देखे हैं तमन्नाओं के बंजर अंजाम
किस तवक़्क़ो पे सँवरने लगी फिर सोचती शाम
किस की आँखों की चमक रास्ता दिखलाती है
फिर वही क़ुमक़ुम-ए-शब की तरह ख़ंदा-ए-लब
कहे जाता है: चली आओ, चली भी आओ
लेकिन इस ख़ंदा के उस पार वही पुल की तलब
''यूँ तो मैं सिर्फ़ तुम्हारा हूँ मगर क्या कीजे
बाज़ मजबूरियाँ....'' मजबूरियाँ! मैं जानती हूँ
जानती हूँ कि गए वक़्त को किस ने रोका
वक़्त आता है गुज़र जाता है बस दूर ही दूर
एक दिन वक़्त बड़े चैन से सो जाएगा
दिन ढला जाता है ढल जाए गा खो जाएगा
नज़्म
टाइपिस्ट
ज़िया जालंधरी