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तू अगर सैर को निकले | शाही शायरी
tu agar sair ko nikle

नज़्म

तू अगर सैर को निकले

जोश मलीहाबादी

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तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए
सुरमई शाल का डाले हुए माथे पे सिरा

बाल खोले हुए संदल का लगाए टीका
यूँ जो हँसती हुई तू सुब्ह को आ जाए ज़रा

बाग़-ए-कश्मीर के फूलों को अचम्भा हो जाए
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए

ले के अंगड़ाई जो तू घाट पे बदले पहलू
चलता फिरता नज़र आ जाए नदी पर जादू

झुक के मुँह अपना जो गंगा में ज़रा देख ले तू
निथरे पानी का मज़ा और भी मीठा हो जाए

तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए
सुब्ह के रंग ने बख़्शा है वो मुखड़ा तुझ को

शाम की छाँव ने सौंपा है वो जोड़ा तुझ को
कि कभी पास से देखे जो हिमाला तुझ को

इस तिरे क़द की क़सम और भी ऊँचा हो जाए
तू अगर सैर को निकले तो उजाला हो जाए