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तुम्हें क्या? | शाही शायरी
tumhein kya?

नज़्म

तुम्हें क्या?

सुलैमान अरीब

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मैं अपनी ज़िंदगी की नोट-बुक से कितनी रातें कितने दिन काटूँ
कि इक इक रात में कितनी क़यामत-ख़ेज़ रातें मुझ पे टूटी हैं

और इक इक दिन में कितने दिन हैं जिन में हश्र बरपा
होता रहता है

और ऐसी कितनी सदियाँ इस ज़मीं पर मुझ पे बीती हैं
मैं हर लम्हे में सौ सौ बार मरता और जीता हूँ

हिसाब-ए-बे-गुनाही हर नफ़स पर देता रहता हूँ
मगर ये मेरा अपना मसअला है एक दम ज़ाती

तुम्हें क्या और किसी को क्या जो मेरे साथ सोती हैं