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तुम जो आते हो | शाही शायरी
tum jo aate ho

नज़्म

तुम जो आते हो

वज़ीर आग़ा

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तुम जो आते हो
तो कुछ भी नहीं रहता मौजूद

तुम चले जाते हो
और बोलने लगते हैं तमाम

अध-खिले फूल
समाअ'त पे जमी चाप हवा बंद मकान

गुफ़्तुगू करने के आसन में रुके सब अज्साम
मुर्दा लम्हात का इक ढेर पहाड़

अब्र की क़ाश उठी मौज का साकित अंदाम
बर्फ़ लब पलकों पे टाँके हुए मोती आँसू

और सिले कानों में आवाज़ की सूइयाँ बे-जान
यक-ब-यक बोलने लगते हैं तमाम

ज़िंदगी बुनने में हो जाती है फिर से मसरूफ़
वक़्त हो जाता है फिर ख़ाक-ब-सर बे-आराम

एक पंछी जिसे उड़ते चले जाना है ख़ुदा जाने कहाँ
और मैं तिनकों के बिखरे हुए बिस्तर की तरह

मुंतज़िर लौट के तुम आओ किसी रोज़ यहाँ
फिर हों इक बार मुअत्तल

ये ज़मीं और ज़माँ