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तुम अपने ख़्वाब घर पर छोड़ आओ | शाही शायरी
tum apne KHwab ghar par chhoD aao

नज़्म

तुम अपने ख़्वाब घर पर छोड़ आओ

मुनीबुर्रहमान

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तुम अपने ख़्वाब घर पर छोड़ आओ
नहीं तो ख़ार बन कर ये चुभेंगे

तुम्हारी रूह को पैहम डसेंगे
मबादा ये तुम्हारा मुँह चिड़ाएँ

तुम इन सब आइनों को तोड़ आओ
तुम अपनी अक़्ल-ओ-मंतिक़ पर हो नाज़ाँ

ये नाख़ुन उस जगह क्या काम देंगे
जहाँ दिल की गिरह उलझी हुई हो

तुम्हारे हाथ अपनी बेबसी पर
तुम्हें हर गाम पर इल्ज़ाम देंगे

कहाँ हैं वो किताबें वो सहाएफ़
कि जन में ज़ख़्म अपने रख दिए थे

उस इंसाँ ने जो शोलों में जला था
उस इंसाँ ने जो सूली पर चढ़ा था

उस इंसाँ ने जो मर मर कर जिया था
तुम अपने ख़्वाब घर पर छोड़ आओ

तुम्हारी धूप सायों में ढलेगी
तुम्हारी रात शबनम पर चलेगी

ज़मीर-ए-ज़हर-आलूदा के च्यूँटे
न रेंगेंगे तुम्हारी बे-हिसी में

तुम्हारा तन तुम्हारा तन बनेगा
तुम्हारा दिल तुम्हारा साथ देगा

तुम्हें क्या चाहिए फिर ज़िंदगी में
तुम अपने ख़्वाब घर पर छोड़ आओ